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ग़ैर पर लुत्फ़ करे हम पे सितम या क़िस्मत - आसिफ़ुद्दौला कविता - Darsaal

ग़ैर पर लुत्फ़ करे हम पे सितम या क़िस्मत

ग़ैर पर लुत्फ़ करे हम पे सितम या क़िस्मत

था नसीबों में हमारे ये सनम या क़िस्मत

यार तू यार नहीं बख़्त हैं सो उल्टे हैं

कब तलक हम ये सहें दर्द-ओ-अलम या क़िस्मत

कूचा-गर्दी से उसे शौक़ है लेकिन गाहे

इस तरफ़ को नहीं रखता वो क़दम या क़िस्मत

कूचा-ए-यार में थोड़ी सी जगह दे ऐ बख़्त

माँगता तुझ से नहीं मुल्क-ए-अजम या क़िस्मत

जान-ओ-दिल में से नहीं एक भी अब नेक-नसीब

दोनों कम-बख़्त हुए आ के बहम या क़िस्मत

'आसिफ़' अब और लगे करने तरक़्क़ी दिन रात

शामत-ए-बख़्त हुई मेरी तो कम या क़िस्मत

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