ज़मीं की रात
ज़मीं की रात की है हुक्मरानी
उसी का एलची सूरज है
आओ!
बुझी जो रौशनी देती हैं वो शमएँ जलाओ
उसी के ये ख़िज़ाँ-दीदा चमन हैं
दमकते आँसुओं के बीच बो कर
ज़मीन-ए-ख़्वाब से अपना कोई गुलशन उगाओ
उसी के हैं ये चश्मे तल्ख़ सारे
अज़ल की तिश्नगी को साथ ले कर
सर-ए-सहरा खड़े हो कर सराबों को बुलाओ
(725) Peoples Rate This