जुर्म
उतरा था मोहब्बत से
बातिन के अंधेरे में
तुम ही ने मगर उस को
न दोस्त कभी जाना
रौशन न कभी माना
अब ठोकरें खाते हो
बातिन के अंधेरे में
और ढूँडते फिरते हो
रिफ़अत पे मगर बहता ज़ुल्मात का धारा है
मादूम वो तारा है
ये जुर्म तुम्हारा है
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