सफ़ीना ग़र्क़ हुआ मेरा यूँ ख़मोशी से
कि सतह-ए-आब पे कोई हबाब तक न उठा
समझ न इज्ज़ इसे तेरे पर्दा-दार थे हम
हमारा हाथ जो तेरे नक़ाब तक न उठा
झिंझोड़ते रहे घबरा के वो मुझे लेकिन
मैं अपनी नींद से यौम-ए-हिसाब तक न उठा
जतन तो ख़ूब किए उस ने टालने के मगर
मैं उस की बज़्म से उस के जवाब तक न उठा