मगर नहीं था फ़क़त 'मीर' ख़्वार मैं भी था
मगर नहीं था फ़क़त 'मीर' ख़्वार मैं भी था
कि अहल-ए-दर्द में आशुफ़्ता-कार मैं भी था
सबा की तरह उसे भी न था सबात कहीं
न जाने क्या था बहुत बे-क़रार मैं भी था
पनाह लेनी पड़ी थी मुझे भी साए में
रहीन-मिन्नत-ए-दीवार-ए-यार मैं भी था
हज़ार अपनी तबीअ'त पे जब्र करता था
मैं सब्र करता था बे-इख़्तियार मैं भी था
ये किस ने देखा कि मुझ बे-नवा के दामन में
मोहब्बतें थीं बहुत साया-दार मैं भी था
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