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तेरे आने का गुमाँ होता है - अशरफ़ यूसुफ़ कविता - Darsaal

तेरे आने का गुमाँ होता है

तेरे आने का गुमाँ होता है

किस ज़माने का गुमाँ होता है

संग-रेज़ों पे भी अब चिड़ियों को

दाने दाने का गुमाँ होता है

मैं खंडर हूँ तो जहाँ को मुझ में

इक ख़ज़ाने का गुमाँ होता है

एक तस्वीर हूँ ग़म की जिस पर

मुस्कुराने का गुमाँ होता है

पेड़ कटते हैं तो हर तिनके पर

आशियाने का गुमाँ होता है

दिल कहाँ अब तो किसी ताइर के

फड़फड़ाने का गुमाँ होता है

उस ज़माने में नहीं हैं हम तुम

जिस ज़माने का गुमाँ होता है

मय लरज़ती है तो दुनिया तुझ पर

डगमगाने का गुमाँ होता है

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