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पर्दे मिरी निगाह के भी दरमियाँ न थे - अशरफ़ रफ़ी कविता - Darsaal

पर्दे मिरी निगाह के भी दरमियाँ न थे

पर्दे मिरी निगाह के भी दरमियाँ न थे

क्या कहिए उन के जल्वे कहाँ थे कहाँ न थे

जिस रास्ते से ले गई थी मुझ को बे-ख़ुदी

उस राह में किसी के क़दम के निशाँ न थे

राज़-आश्ना है मेरी नज़र या फिर आइना

वर्ना वो अपने हुस्न के ख़ुद राज़-दाँ न थे

कुछ बे-सदा से लफ़्ज़ नज़र कह गई ज़रूर

माना लब-ए-ख़मोश रहीन-ए-बयाँ न थे

आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबाँ

भूले तो यूँ कि जैसे कभी मेहरबाँ न थे

'अशरफ़' फ़रेब-ए-ज़ीस्त है कब इम्तिहाँ से कम

इस के सिवा तो और यहाँ इम्तिहाँ न थे

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