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बस-कि दीदार तिरा जल्वा-ए-क़ुद्दूसी है - अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ कविता - Darsaal

बस-कि दीदार तिरा जल्वा-ए-क़ुद्दूसी है

बस-कि दीदार तिरा जल्वा-ए-क़ुद्दूसी है

दामन-ए-वस्ल भी आलूदा-ए-मायूसी है

है कहाँ बू-ए-वफ़ा उस दहन-ए-शीरीं में

ग़ुंचा-लब तेरी ज़बाँ हम ने बहुत चूसी है

यार गो ख़ून मिरा मिस्ल-ए-हिना हो पामाल

लेकिन अपने तईं मंज़ूर क़दम-बोसी है

दिल मिरा ख़ाक शगुफ़्ता हो चमन में जा कर

गुल में ये रंग कहाँ एक तिरी बू सी है

एक दिन ज़ुल्फ़ के मुँह पर न चढ़ी ये काफ़िर

याद-ए-काकुल को फ़क़त शेवा-ए-जासूसी है

वो सजी तेग़ कि दम में करे लाखों को क़त्ल

कौन कहता है मियाँ तेरी कमर मू सी है

शैख़ रोता है इसे सुन के बरहमन यकसू

पुर-असर बस कि मिरा नाला-ए-नाक़ूसी है

चश्म-ए-नमनाक ने अज़ बस-कि बुझाया उस को

आतिश-ए-इश्क़ कहाँ दिल में मगर लू सी है

ऐ 'फ़ुग़ाँ' इश्क़ कहाँ दिल में ब-क़ौल-ए-'मिन्नत'

हाँ ये सच मिलने की ख़ूबाँ से तो इक ख़ू सी है

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