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आलम में अगर इश्क़ का बाज़ार न होता - अशरफ़ अली फ़ुग़ाँ कविता - Darsaal

आलम में अगर इश्क़ का बाज़ार न होता

आलम में अगर इश्क़ का बाज़ार न होता

कोई किसी बंदे का ख़रीदार न होता

हस्ती की ख़राबी नज़र आती जो अदम में

उस ख़्वाब से हरगिज़ कोई बेदार न होता

कहता है तुझे ख़ाक न दूँ ग़ैर-ए-अज़ीयत

ये दिल में अगर थी तो मिरा यार न होता

मालूम किसे थी ये तिरी ख़ाना-ख़राबी

मैं जानता ऐसा तो गिरफ़्तार न होता

आलम को जलाती है तिरी गर्मी-ए-मजलिस

मरते हम अगर साया-ए-दीवार न होता

ऐ शैख़ अगर कुफ़्र से इस्लाम जुदा है

पस चाहिए तस्बीह में ज़ुन्नार न होता

ज़ालिम मिरे हासिद की तो शादी थी इसी में

यानी मुझे दर तक भी तिरे बार न होता

देते तिरी मज्लिस में अगर राह 'फ़ुग़ाँ' को

उस शख़्स से हरगिज़ कोई बे-ज़ार न होता

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