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परिक्रमा तवाफ़ - अशोक लाल कविता - Darsaal

परिक्रमा तवाफ़

मैं तो जैसे खड़ा हुआ हूँ इक मंज़िल पर

और लम्हे ये वक़्त के टुकड़े

यूँ उड़ते हैं चारों तरफ़ इक तितली जैसे

जिस के पँख कभी तो सुनहरे

और कभी लगते हैं सियह

यूँ ही बे-मा'नी बे-मौक़ा

नाचने लगती है दुनिया दिल गीत सुनाता है

बंजर धरती से उबले पड़ते हैं नूर के चश्मे

और अचानक

बादल की चादर सूरज के मुँह को ढक देती है

मद्धम पड़ने लगता है संगीत का जादू

नूर का दम घुटने लगता है

और लम्हे ये वक़्त के टुकड़े

यूँ उड़ते हैं चारों तरफ़ इक तितली जैसे

जिस के पँख कभी तो सुनहरे

और कभी लगते हैं सियह

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