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मेरे एहसास मेरे विसवास - अशोक लाल कविता - Darsaal

मेरे एहसास मेरे विसवास

कहाँ से आए ये एहसास मेरे

कि अब जो बन गए विश्वास मेरे

मिरे जो ज़ाविए हैं ज़िंदगी के

मिरे जो नज़रिये हैं आदमी के

मिरे एहसास से पैदा हुए हैं

मिरे विश्वास से पैदा हुए हैं

मगर शायद है सच कुछ बात ये भी

मिरी क़द्रें मिरे एहसास मेरे नज़रिये भी

मेरे अपने नहीं है मेरे जो भी यक़ीं हैं

वो मेरा घर नहीं है मिरा मैं बस मकीं है

मिला माहौल बचपन से मुझे जो

जो धड़कन दी गई है मेरे दिल को

जो क़द्रे और जो मज़हब मिला है

मेरी पैदाइश का वो सिलसिला है

मेरे एहसास अब मेरी हक़ीक़त

मेरे विश्वास अब मेरी सदाक़त

हुआ है क़ैद पिंजरे में मेरा मन

ढला है एक साँचे में मेरा तन

मुझे जो ज़िंदगी जीनी है अपनी

मुझे गर ढूँडनी है अपनी हस्ती

निकलना होगा अपनी ही हदों से

हक़ीक़त के भरम के आसरों से

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