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महकती हुई तन्हाइयाँ - अशोक लाल कविता - Darsaal

महकती हुई तन्हाइयाँ

एक ख़ुश्बू सी बसी रहती है साँसों में मिरे

हुस्न का ध्यान भी ख़ुद हुस्न के मानिंद हसीं

पास हो तुम तो ये क़ुदरत है मोहब्बत जागे

दूर होने पे भी एहसास का रहना है यक़ीं

लम्हा हर साथ में लाता है हज़ारों दुनिया

बूँद की कोख में ज्यूँ इन्द्र-धनुष रहता है

कितने भी गहरे अँधेरे हों तुम्हारा जादू

रौशनी बन के हर इक रग में मेरी बहता है

हुस्न वो शय है कि जिस की कोई सरहद ही नहीं

वक़्त बे-मअ'नी है और फ़ासला इक धोका है

घाव रहता है हरा टीस के पहनावे में

ख़्वाब और याद का एक एक नफ़स सच्चा है

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