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लहू रोता है - अशोक लाल कविता - Darsaal

लहू रोता है

सच का होता है मुहाफ़िज़ जो निडर होता है

कोई हाकिम हो ख़ुदा हो कि ख़ुदा का बंदा

वो जो मा'सूम है इन सब से परे होता है

मन जो चंगा हो हथेली में बसी है गँगा

ज़ुल्म से जब्र से ज़ुल्मत से मुख़ातिब हो कर

आँख से आँख मिलाता है हर इक सुख-दुख से

उस की ख़ामोशी ही एलान हुआ करती है

उस की आवाज़ में चालें हैं न कोई धोके

हो भले तन्हा उसे सेना की दरकार नहीं

बाहु-बल चाहिए उस को न कोई भी शमशीर

वो क़यामत ही क़यामत में जिया करता है

आख़िरी उस की अदालत है फ़क़त अपना ज़मीर

आज मा'लूम हुआ ख़्वाब का ख़ाका था ये

यूँ न था मैं नें फ़क़त सोचा था यूँ होता है

क़त्ल हो जाती है इंसाफ़ की उम्मीद अगर

भाई-चारे का इरादा भी लहू रोता है

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