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जाने क्यूँ - अशोक लाल कविता - Darsaal

जाने क्यूँ

जब मैं तुम से मिलता हूँ

बअ'द एक मुद्दत के

तुम को अपना कहने में

तुम से बात करने में

जाने क्यूँ झिझकता हूँ

और सोचता हूँ मैं

वक़्त के तक़ाज़ों से

तुम बदल भी सकती हो

हर दफ़ा मगर तुम में

वो ही अपना-पन पाया

वो ही सादगी पाई

बे-तकल्लुफ़ी पाई

ये यक़ीन हो आया

तुम बदल नहीं सकतीं

फिर भी ऐसा होता है

जब मैं तुम से मिलता हूँ

बअ'द एक मुद्दत के

तुम को अपना कहने में

तुम से बात करने में

जाने क्यूँ झिझकता हूँ

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