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घर वापसी - अशोक लाल कविता - Darsaal

घर वापसी

टोपी जनेऊ टीका माला छाप तिलक की झूटी हाला

हैं ये सब बाज़ार की चीज़ें नक़ली और बेकार की चीज़ें

तन मन में गर कोढ़ हुआ है कब उस को रेशम ने ढका है

फीका है हर एक लिबास दिल में अगर नहीं विश्वास

काली सफ़ेद अगर हैं नज़रें जीवन पे लगती हैं क़ैदें

फीके फीके चाँद सितारे इन्द्र-धनुष के रंग भी सारे

ऐसा है पर मेरा घर

जिस में नहीं दीवार या दर

किरनों का साया पड़ता है

इंसाँ बस इंसाँ रहता है

मेरा घर है रूह मिरी

रस्ता मंज़िल सभी वही

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