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बुनियादें - अशोक लाल कविता - Darsaal

बुनियादें

बिखर गए हैं सितारे बन के

उस एक सूरज के कितने टुकड़े

हर इक टुकड़ा अलग जहाँ है

सरहद के बंधन में आसमाँ है

ज़मीन का तो वजूद क्या है

हर इक कुन पे ख़ुदा लिखा है

हर इक ख़ुदा का है अपना शजरा

हर इक शजरे की अपनी दुनिया

हर इक दुनिया के अपने हिस्से

हर इक हिस्से के अपने रिश्ते

हर इक रिश्ते में सौ दीवारें

हर एक दीवार में दरारें

दरार में हैं नए जज़ीरे

हर इक जज़ीरे के अपने विर्से

हर इक विर्से के ग़म अपने अपने

हर इक अपने के क़िस्से अपने

महल जो तहज़ीब-ओ-इर्तिक़ा के माज़ी पे बन रहे हैं

है उन की बुनियाद कितनी गहरी मैं उन की गहराई जानता हूँ

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