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बासी रिश्ते - अशोक लाल कविता - Darsaal

बासी रिश्ते

चलो मिल-जुल के हम रिश्तों के बासी-पन का हल सोचें

अचानक फिर उसी अंदाज़ से नज़रें मिलीं अपनी

जब हम ने पहले पहले एक-दूजे को सराहा था

सहम जाएँ ये अपनी उन तमन्नाओं की आहट से

धड़कते दिल से जब हम ने कोई सपना सजाया था

वो ही बे-साख़्ता सी सादगी के पल जिएँ फिर से

वफ़ा का या जफ़ा का ज़िक्र था न नाम रिश्तों का

महक थी इक कशिश थी अजनबी-पन की फ़ज़ाओं में

हरे इक झोंके में आता था कोई पैग़ाम रिश्तों का

सभी कुछ हम समझ बैठें हैं आओ ये भरम तोड़ें

किसी कोने में तो होगा कोई एहसास अन-जाना

अधूरा अन-छुआ सा अन-सुना सा और अन-देखा

हमारी राह तकता होगा कोई मोड़ दीवाना

चलो मिल-जुल के हम रिश्तों के बासी-पन का हल सोचें

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