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अपने अशआ'र भूल जाता हूँ - अशोक लाल कविता - Darsaal

अपने अशआ'र भूल जाता हूँ

आज-कल अक्सर ऐसा पाता हूँ

अपने अशआ'र भूल जाता हूँ

क्या बहर थी वो क्या तरन्नुम था

अश्क था कोई या तबस्सुम था

कैफ़ियत क्या थी और क्या एहसास

जिन से होता था ख़ुदी का एहसास

जिन को मैं जावेदाँ समझता था

अपने दोनों-जहाँ समझता था

अब वही शे'र भूल जाता हों

आज-कल अक्सर ऐसा पाता हूँ

ऐसा क्यूँ हो गया अगर सोचूँ

कोई वाजिब वज्ह अगर खोजूँ

ऐसा महसूस होने लगता है

शे'र ख़ुद को वो याद रहता है

जो किसी और को भी याद रहे

होंठ पे न हो मगर दिल में बसे

ऐसा मुमकिन तो है मगर बस तब

किसी लम्हे मैं ख़ुद को भूल के जब

ख़ुद को दरिया-दिली से बाँटा हो

मेरा मैं और किसी का हिस्सा हो

यूँ किया ही नहीं तो क्या फ़रियाद

अपनी ही क़ैद में रहा आबाद

फ़िक्र की असली बात ये है मगर

इन दिनों यूँ भी हुआ है अक्सर

शे'र औरों के भूल जाता हूँ

क्या मैं पहले की तरह ज़िंदा हूँ

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