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क़ैद-ए-हस्ती में हूँ अपने फ़र्ज़ की तामील तक - अश्क अमृतसरी कविता - Darsaal

क़ैद-ए-हस्ती में हूँ अपने फ़र्ज़ की तामील तक

क़ैद-ए-हस्ती में हूँ अपने फ़र्ज़ की तामील तक

इक नई दुनिया नए इंसान की तश्कील तक

दाम हम-रंग-ए-ज़मीं फैला दिया सय्याद ने

वादी-ए-गंग-ओ-जमन से रूद-बार-ए-नील तक

आँख से बह जाएगा दिल में अगर बाक़ी रहा

क़तरा-ए-ख़ूँ दास्तान-ए-दर्द की तकमील तक

शाइ'री का साज़ है वो साज़ हो जिस साज़ में

नग़्मा-ए-रूह-उल-अमीं से बाँग-ए-इसराफ़ील तक

तू ही असरार-ए-सुख़न से है अभी ना-आश्ना

वर्ना इस इज्माल में मौजूद है तफ़्सील तक

बस नहीं चलता है उन का वर्ना ये ज़ुल्मत-परस्त

अपनी फूँकों से बुझा दें अर्श की क़िंदील तक

'अश्क' अपने सीना-ए-पुर-ख़ूँ में सैल-ए-अश्क भी

रोक रखता हूँ जिगर के ख़ून की तहलील तक

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