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कश्मकश में हैं तिरी ज़ुल्फ़ों के ज़िंदानी हनूज़ - अश्क अमृतसरी कविता - Darsaal

कश्मकश में हैं तिरी ज़ुल्फ़ों के ज़िंदानी हनूज़

कश्मकश में हैं तिरी ज़ुल्फ़ों के ज़िंदानी हनूज़

तीरगी पैहम है ख़म-दर-ख़म परेशानी हनूज़

रखते हैं हम मक़सद-ए-तामीर-ए-नौ पेश-ए-नज़र

गरचे हैं मिन-जुमला-ए-असबाब-ए-वीरानी हनूज़

सत्ह-ए-दरिया पर सुकूँ सा है मगर ऐ सत्‌ह-बीं

क़अ'र-ओ-दरिया में वही मौजें हैं तूफ़ानी हनूज़

अब जुनूँ में भी नहीं आता है सहरा का ख़याल

शहर-ए-हिकमत में है वहशत-ख़ेज़ वीरानी हनूज़

पुर्सिश-ए-अहल-ए-क़लम हो या न हो होती तो है

संग-ए-मरमर के मज़ारों पर गुल-अफ़्शानी हनूज़

हम ने रख दी क़ालिब-ए-अशआ'र में चीज़-ए-दिगर

तुम नहीं कर पाए तकमील-ए-ज़बाँ-दानी हनूज़

'अश्क' उसूल-ए-कस्ब-ए-ज़र से तू नहीं है आश्ना

तिश्ना-ए-तकमील है तेरी हमा-दानी हनूज़

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