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वो मेरा है तो कभी भी न आज़माऊँ उसे - अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन कविता - Darsaal

वो मेरा है तो कभी भी न आज़माऊँ उसे

वो मेरा है तो कभी भी न आज़माऊँ उसे

मिरा नहीं है तो फिर किस लिए सताऊँ उसे

वो माहताब से बढ़ कर के हो गया सूरज

जो ख़ुद भी आए तो कैसे गले लगाऊँ उसे

मैं चाहता हूँ मिरा प्यार उस से ऐसा हो

वो रूठता रहे मैं बार-हा मनाऊँ उसे

तमाम दिन की मशक़्क़त-भरी तकान के ब'अद

तमाम रात मोहब्बत से फिर जगाऊँ उसे

मिरा हबीब मिरे इश्क़ में खिलौना हो

वो टूट जाए तो फिर जोड़ कर बनाऊँ उसे

हुआ करे मिरा उस से मुक़ाबला यूँ भी

उसी से जीत के उस को ही हार जाऊँ उसे

वो जानता है मिरे हर सवाल का मतलब

अगर जवाब भी दे दे तो मान जाऊँ उसे

यही दुआ है मिरी रब्ब-ए-दो-जहाँ से 'बिलाल'

किसी से अहद करूँ गर तो फिर निभाऊँ उसे

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