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आ जाओ अब तो ज़ुल्फ़ परेशाँ किए हुए - अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन कविता - Darsaal

आ जाओ अब तो ज़ुल्फ़ परेशाँ किए हुए

आ जाओ अब तो ज़ुल्फ़ परेशाँ किए हुए

हम राह पर हैं शम्अ' फ़रोज़ाँ किए हुए

मायूस क़ल्ब है तिरी आमद का मुंतज़िर

दहलीज़ पर निगाह को चस्पाँ किए हुए

अहद-ए-वफ़ा को तोड़ के हम भी हैं मुज़्महिल

तुम भी उधर हो चाक गरेबाँ किए हुए

आओ तो मेरे सहन में हो जाए रौशनी

मुद्दत गुज़र गई है चराग़ाँ किए हुए

बैठे हैं तिश्ना-काम सर-ए-रहगुज़र तमाम

साक़ी तिरी शराब का अरमाँ किए हुए

आ जाओ कि बहार है अपने शबाब पर

'इब्न-ए-चमन' के वस्ल का सामाँ किए हुए

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