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अगर ख़ुशी में तुझे गुनगुनाते लगते हैं - अशफ़ाक़ नासिर कविता - Darsaal

अगर ख़ुशी में तुझे गुनगुनाते लगते हैं

अगर ख़ुशी में तुझे गुनगुनाते लगते हैं

तो लोग शहर से आँसू बहाने लगते हैं

निकल के आँख से लफ़्ज़ों में आने लगते हैं हैं

मियाँ ये अश्क हैं यूँही ठिकाने लगते हैं

गुज़र चुके हैं किसी अक्स की मअय्यत में

हम ऐसे लोग जो आईना-ख़ाने लगते हैं

तो करने लगते हैं ग़ुस्ल-ए-तलाश-ए-मिसरा-ए-नौ

हम अपने आप को जब भी पुराने लगते हैं

बग़ौर देखें तो यक-जस्त फ़ासले पे है तू

लगाना चाहें तो सदियाँ ज़माने लगते हैं

शजर हूँ और परिंदों से है बहार मिरी

ये मुझ पे आएँ तो फल-फूल आने लगते हैं

करें तो क्या हमें अम्बोह-ए-ख़्वाब रोकता है

कभी जो सोए हुओं को जगाने लगते हैं

हम आइने में तिरा अक्स देखने के लिए

कई चराग़ नदी में बहाने लगते हैं

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