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यहीं कहीं कोई आवाज़ दे रहा था मुझे - अशफ़ाक़ हुसैन कविता - Darsaal

यहीं कहीं कोई आवाज़ दे रहा था मुझे

यहीं कहीं कोई आवाज़ दे रहा था मुझे

चला तो सात समुंदर का सामना था मुझे

मैं अपनी प्यास में खोया रहा ख़बर न हुई

क़दम क़दम पे वो दरिया पुकारता था मुझे

ज़माने बाद उन आँखों में इक सवाल सा था

कि एक बार पलट कर तो देखना था मुझे

ये पाँव रुक गए क्यूँ बे-निशान मंज़िल पर

यहाँ से इक नया रस्ता निकालना था मुझे

ये ज़िंदगी जो तिरे नाम से इबारत थी

इसे कुछ और बनाना सँवारना था मुझे

रफ़ीक़-ए-गर्दिश-ए-सय्यार्गां से पूछूँगा

वो कौन था जो ख़लाओं में ढूँडता था मुझे

तमाम तर्क-ए-मरासिम के बावजूद 'अश्फ़ाक़'

वो ज़ेर-ए-लब ही सही गुनगुना रहा था मुझे

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