हंगाम-ए-शब-ओ-रोज़ में उलझा हुआ क्यूँ हूँ
हंगाम-ए-शब-ओ-रोज़ में उलझा हुआ क्यूँ हूँ
दरिया हूँ तो फिर राह में ठहरा हुआ क्यूँ हूँ
क्यूँ मेरी जड़ें जा के ज़मीं से नहीं मिलतीं
गमले की तरह सहन में रक्खा हुआ क्यूँ हूँ
इस घर के मकीनों का रवय्या भी तो देखूँ
तज़ईन-ए-दर-ओ-बाम में खोया हुआ क्यूँ हूँ
गिरती नहीं क्यूँ मुझ पे किसी ज़ख़्म की शबनम
मैं क़ाफ़िला-ए-दर्द से बछड़ा हुआ क्यूँ हूँ
आँखों पे जो उतरा न हुआ दिल पे जो तहरीर
उस ख़्वाब की ताबीर से सहमा हुआ क्यूँ हूँ
दिन भर के झमेलों से बचा लाया था ख़ुद को
शाम आते ही 'अश्फ़ाक़' मैं टूटा हुआ क्यूँ हूँ
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