तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
तेरे बदन की धूप से महरूम कब हुआ
लेकिन ये इस्तिआरा भी मंज़ूम कब हुआ
वाक़िफ़ कहाँ थे रात की सरगोशियों से हम
बिस्तर की सिलवटों से भी मालूम कब हुआ
शाख़-ए-बदन से सारे परिंदे तो उड़ गए
सज्दा तिरे ख़याल का मक़्सूम कब हुआ
सुनसान जंगलों में है मौजूदगी की लौ
लेकिन वो एक रास्ता मादूम कब हुआ
निस्बत मुझे कहाँ रही अस्र-ए-ज़वाल से
मेरा वजूद सल्तनत-ए-रूम कब हुआ
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