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अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है - अशअर नजमी कविता - Darsaal

अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है

अंधेरे में तजस्सुस का तक़ाज़ा छोड़ जाना है

किसी दिन ख़ामुशी में ख़ुद को तन्हा छोड़ जाना है

समुंदर है मगर वो चाहता है डूबना मुझ में

मुझे भी उस की ख़ातिर ये किनारा छोड़ जाना है

बहुत ख़ुश हूँ मैं साहिल पर चमकती सीपियाँ चुन कर

मगर मुझ को तो इक दिन ये ख़ज़ाना छोड़ जाना है

तुलू-ए-सुब्ह की आहट से लश्कर जाग जाएगा

चला जाए अभी वो जिस को ख़ेमा छोड़ जाना है

न जाने कब कोई आ कर मिरी तकमील कर जाए

इसी उम्मीद पे ख़ुद को अधूरा छोड़ जाना है

कहाँ तक ख़ाक का पैकर लिए फिरता रहूँगा मैं

उसे बारिश के मौसम में निहत्ता छोड़ जाना है

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