मेरी दुनिया में समुंदर का कहीं नाम नहीं
फिर घटा फेंकती है मुझ पे ये पत्थर कैसे
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'अशहर' कहीं क़रीब ही तारीक ग़ार है
शहर में छाई हुई दीवार-ता-दीवार थी
है कौन जिस से कि वादा ख़ता नहीं होता
उस से मिलने की तलब में जी लिए कुछ और दिन
अजनबियत थी मगर ख़ामोश इस्तिफ़्सार पर
क्या क़द्र-ए-अना होगी जबीं जान रही है
तिरा ग़ुरूर झुक के जब मिला मिरे वजूद से
रहगुज़र भी तिरी पहले थी अजनबी
वहीं के पत्थरों से पूछ मेरा हाल-ए-ज़िंदगी
शोर कैसा है मिरे दिल के ख़राबे से उठा
इक शहर ज़िया-बार यहाँ भी है वहाँ भी