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इक शहर ज़िया-बार यहाँ भी है वहाँ भी - अशहर हाशमी कविता - Darsaal

इक शहर ज़िया-बार यहाँ भी है वहाँ भी

इक शहर ज़िया-बार यहाँ भी है वहाँ भी

लेकिन मिरा आज़ार यहाँ भी वहाँ भी

रौशन मिरे अंदर के अंधेरों में बराबर

इक आतिश-ए-पिंदार यहाँ भी है वहाँ भी

अहबाब मिरे एक ही जैसे हैं जहाँ हैं

इक जज़्बा-ए-ईसार यहाँ भी है वहाँ भी

इक सुब्ह तिरे साथ कई मील चले थे

उस सुब्ह का असरार यहाँ भी है वहाँ भी

गर साथ अज़ीज़ो न मयस्सर हो तुम्हारा

जीना मिरा बेकार यहाँ भी है वहाँ भी

है जिस की रवानी से लहू गर्म हमारा

वो चश्मा-ए-बेदार यहाँ भी है वहाँ भी

आँखों से मिरे दिल में समाया है जो 'अशहर'

उस शोख़ की सरकार यहाँ भी है वहाँ भी

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