कहने आए थे कुछ कहा ही नहीं
कहने आए थे कुछ कहा ही नहीं
चल दिए जैसे कुछ सुना ही नहीं
इस क़दर ज़ुल्म इब्न-ए-आदम पर
जैसे उस का कोई ख़ुदा ही नहीं
हम जमा कर निगाह बैठे हैं
अपनी क़िस्मत का दर खुला ही नहीं
फ़िक्र आग़ाज़ ही की है सब को
कोई अंजाम सोचता ही नहीं
तेरे मक़्तल में आ गए आख़िर
और कुछ हम को रास्ता ही नहीं
वो तिरे नक़्श-ए-पा को क्या समझे
जिस का सज्दे में सर झुका ही नहीं
तू किताबों में ढूँढता क्या है
इश्क़ की चारा-गर दवा ही नहीं
जिस को सीने से हम लगा लेते
हम को ऐसा कोई मिला ही नहीं
और अब जी के क्या करें 'असग़र'
अब तो जीने में कुछ मज़ा ही नहीं
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