तारीख़ एक ख़ामोश ज़माना
ये साठ सदी का क़िस्सा है
ये साठ बरस की बात नहीं
तारीख़ ने जब आँखें खोलीं
सब पानी था
फिर पानी पर तस्वीर बनी
तस्वीर ज़मीं पर फैल गई
और उस पर बारिश टूट पड़ी
इक बीज कहीं पर
साठ सदी की आहट से बेदार हुआ
जंगल बन कर फैल गया
वहीं कहीं पर मैं भी था
तुम भी थीं
तारीख़ ने दस्तक दी थी
तारीख़ उतरी थी धरती पर
वो रात थी पूरन-माशी की
फिर धरती ही तारीख़ बनी
तारीख़ कोई बंदर तो नहीं
तारीख़ कोई चेहरा तो नहीं
तारीख़ तो एक समुंदर है
जो पूरन-माशी की रातों में
पागल हो कर फैलता है
और सब को बहा ले जाता है
तारीख़ कोई ख़ामोश ज़माना होता है
जो सदियों तक मौसम की गोद में सोता है
फिर करवट ले कर जागता है
ऐसा मुझ को
'गौतम-बुध' ने ज्ञान समय समझाया था
और ये तो मुझ से आख़िरी आदमी ने पूछा था
अरे मियाँ किस खूँट चले हो
ठहरो
ये साठ सदी का क़िस्सा है
कुछ और नहीं है
और मेरे अंदर तो उन सदियों की वो गूँज बसी है
जो अगली कितनी सदियों तक
पूरन-माशी की रातों में
आवाज़ बनेगी
ये साठ सदी का क़िस्सा है
कुछ और नहीं है
मेरे अंदर साठ सदी की गूँज बसी है
मैं और तुम इस गूँज में ज्ञान किनारे
आ कर बैठ गए थे
तारीख़ ने जब इस धरती पर बिसराम किया
जब क़िस्सा-गो की लोरी में हम सोते थे
और चिड़ियों की चहकार में आँखें खोलते थे
मौसम के मिज़ाज में रची हुई बातों में
अमृत घोलते थे
यहीं कहीं पर हम तुम
'मीर' और 'मीरा' के दुख दिल में एल्बम करते थे
वो दुख तंदूर की रोटी में पक जाते थे
मेरी और तुम्हारी माँ
वो रोटी अपने दिल के तंदूर से लाती थी
फिर भूक हमारी पहले से बढ़ जाती थी
मैं और तुम तारीख़ के बीज से फूटेंगे
और 'गौतम-बुध' के जंगल जैसी उम्र में ढल जाएँगे
(994) Peoples Rate This