शहर-बदर
शाम का पिंजरा मेरे जिस्म पे गिर जाता है
और मैं दर्जा दोम का क़ैदी
दुश्मन के अख़बार से पूरी दुनिया के लोगों की बिगड़ती शक्लें देखने लगता हूँ
और सूरज की आज़ादी
मेरे जीने की ख़्वाहिश को अपना दोस्त बनाने आ जाती है
मेरे नाश्ते के बर्तन में मेरी मोहब्बत के बरसों का सारा ज़ाइक़ा भर जाता है
सिगरेट के हर कश से दरिया खींच आते हैं
और परिंदे अपनी औलादों को मेरे गीत का चोगा देते हैं
जब मेरे पाँव उन के बनाए ज़ाब्तों की दलदल में धँस जाते हैं
मेरी आँखें लाखों मील सफ़र कर जाती हैं
और मेरे बाज़ू रेल की दोनों पटरियाँ बन कर फैलते हैं
जब मेरी रगों में शायरी ख़ून बनाती है
मैं शाम का पिंजरा तोड़ के बाहर आ जाता हूँ
मेरे पाँव के सब रिश्ते इक दूजे से जुड़ जाते हैं
मेरे लफ़्ज़ दरख़्तों के गुम्बद में कबूतर बन के गटलने लगते हैं
में अपने सिरहाने बैठे नेरूदा से कुछ बातें पूछता हूँ
(800) Peoples Rate This