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जब हम दोनों जुदा हुए थे - असग़र नदीम सय्यद कविता - Darsaal

जब हम दोनों जुदा हुए थे

जब हम दोनों जुदा हुए थे

उस ने पहनी सरमा की रातों में निकले चाँद की साड़ी

मैं ने पहना

अपनी बन-बासी का चोला

उस ने माँगी धूप

जो बर्फ़ों पर चमकी थी और हँसी के दरिया में बहते हुए

हम तक पहुँची थी

मैं ने माँगी घास में गिरी हुई आवाज़

उस के हाथ में

आठ पहर के ख़्वाब का छोटा बच्चा था

मेरे हाथ में वक़्त ने अपने बीज से बाहर पाँव रखा

उस की आँख में नाव डूबी

मेरी आँख में एक परिंदा डर के दुबका

उस के होंट पे मेरे नाम का साया था

मेरे होंट पे उस के जिस्म की बारिश थी

उस के दिल में गुम-गश्ता तहज़ीबों जैसी ख़ामोशी थी

मेरे दिल में तेज़ हवा की याद में खोया मौसम था

उस के पाँव हैरत की सीढ़ी से नीचे उतर रहे थे

मेरे पाँव दिल की ज़मीं से लिपट रहे थे

जब हम दोनों जुदा हुए थे

आधा बोसा आधा आँसू दिल में रहा

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