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दिन फैला है - असग़र नदीम सय्यद कविता - Darsaal

दिन फैला है

बाँसुरी की धुन से चावल की बाली तक

दिन फैला है

और दरांती वाले हाथ में उस का दामन

जैसे मल्लाहों के हाथ में जाल हो

या फिर घोड़-सवार के हाथ में उस की रासें

दिन फैला है

दही बिलोने की आवाज़ से जामुन के पेड़ों तक

चूड़ियाँ पहनने वाले हाथ में उस का दामन

खिंचते खिंचते ओढ़नी बन जाएगा

दिन फैला है

आसमान से बच्चे की नन्ही मुट्ठी तक

रफ़्ता रफ़्ता दूध में ढल जाएगा

दिन फैला है

रेल की आहनी पटरी पर

और भाग रहा है छोटे शहरों की मंडी तक

भागते भागते सुर्ख़ अनार में ढल जाएगा

दिन फैला है

गेंदे के फूलों में

मैले बच्चों की ख़ाली जेबों में

दिन फैला है

मेरी तेरी आँखों में

जो रफ़्ता रफ़्ता मुस्तक़बिल की धुन पे गाया

उजले पानियों जैसा कोई

गीत बनेगा

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