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दम तोड़ती है शाम की नीली हवा - असग़र नदीम सय्यद कविता - Darsaal

दम तोड़ती है शाम की नीली हवा

आसमाँ क्यूँ दूर होता जा रहा है

तितलियाँ और फ़ाख़ताएँ

अपनी मफ़्तूहा फ़ज़ा पर मुतमइन हैं

मुझ में क्यूँ दम तोड़ती है शाम की नीली हवा

मुझ में क्यूँ सोए परिंदे

मुझ से क्यूँ ऊँचे दरख़्तों की ज़मीं छुपने लगी

आसमाँ क्यूँ दूर होता जा रहा है

रात के इस शामियाने में कोई मौसम नहीं है

आज मैदानों में

इक साया चलेगा दूर तक

आज दरियाओं में कोई डूबता जाएगा

फिर ऊँचे पहाड़ों पर कोई आवाज़ नीली धुँद बनती जाएगी

तुम अपने दरवाज़ों पे लिख दो

आज की शब चाँद को गरहन लगेगा

नींद को आँखें नहीं मिल पाएँगी

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