आज़ादों का गीत
मेरे दिन सैराब हुए हैं
नींदें घोर समुंदर जैसी
मेरी आँख से लिपटी हैं
सुब्ह की साअत आज़ादों का गीत बनी है
साथ चली है सय्याहों के रस्ते पर
मैं एक सवार
सदा के रथ पर बैठ के जाऊँ
सूरज-मुखी के जलसे में
बात करूँ त्यौहारों की
जो मेरे वस्ल के दरवाज़ों तक आ पहुँचे हैं
मेरी उम्र के खलियानों में
जिन की फ़सलें नए निसाब से उतरी हैं
बात करूँ उस निस्बत की
जो फूल उतरते मौसम की पोशाक में आई
तेरे दिल में मेरे दिल में
कैसे अपनी भाषा से मैं शहद बनाऊँ
कैसे दूध कशीद करूँ
उन बातों से जो सब की जानी-बूझी हैं
मेरे दिन सैराब हुए हैं
जैसे सूरज और कबूतर उड़ जाते हैं
अपने अपने डरबों से
जैसे पानी बह जाता है दरियाओं के आँगन से
ऐसे ही मेरे दिन क्या मालूम?
कहाँ तक जाएँ
किन रिश्तों में जागना चाहें
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