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घरौंदे - असग़र मेहदी होश कविता - Darsaal

घरौंदे

कहते हैं एक रोज़ ये मिर्रीख़ भी कभी

अपनी ज़मीन ही की तरह इक जहान था

आबाद थे वहाँ भी बड़े पुर-शिकोह लोग

इल्म-ओ-हुनर में हिकमत-ओ-दानिश में ताक़ थे

मुट्ठी में उन की सारी तवानाई क़ैद थी

एटम की क़ुव्वतों पे बड़ा इख़्तियार था

इक रोज़ उन की ग़लती से या फिर ग़ुरूर से

एटम की सारी क़ुव्वतें आज़ाद हो गईं

सारी हवा-ए-ज़ीस्त फ़ज़ा से निकल गई

मिर्रीख़ जो ज़मीन ही जैसा जहान था

जल-भुन के मुर्दा ख़ाक का इक ढेर रह गया

हम भी तो इल्म-ओ-हिकमत-ओ-दानिश में कम नहीं

हम को भी अपनी एटमी ताक़त पे नाज़ है

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