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ये तो सच है कि टूटे फूटे हैं - असग़र मेहदी होश कविता - Darsaal

ये तो सच है कि टूटे फूटे हैं

ये तो सच है कि टूटे फूटे हैं

मेरे बचपन के ये खिलौने हैं

तपते सहरा में तेज़ बारिश के

मैं ने कितने ही ख़्वाब देखे हैं

कौन किस की बरहनगी पे हँसे

सब ही ज़ेर-ए-लिबास नंगे हैं

वो कबूतर थे कितने गर्म-ओ-गुदाज़

अब भी हाथों में लम्स चिपके हैं

इन के पानी से क्या बुझेगी प्यास

ये घड़े तो बहुत ही कच्चे हैं

ज़ेहन का इक वरक़ भी सादा नहीं

जाने क्या क्या सवाल लिक्खे हैं

पड़ रहे हैं फ़ुरात पर पहरे

मेरे हाथों में ख़ाली कूज़े हैं

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