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प्यासा रहा मैं बाला-क़दी के फ़रेब में - असग़र मेहदी होश कविता - Darsaal

प्यासा रहा मैं बाला-क़दी के फ़रेब में

प्यासा रहा मैं बाला-क़दी के फ़रेब में

दरिया बहुत क़रीब था मुझ से नशेब में

मौक़ा मिला था फिर भी न मैं आज़मा सका

उस की पसंद के कई सिक्के थे जेब में

परदेस जाने वाला पलट भी तो सकता है

इतना कहाँ शकेब था इस ना-शकेब में

सुनता तो है बदन की इबादत पे आयतें

आता नहीं है फिर भी किसी के फ़रेब में

खिलता है उस के जिस्म पे क़ातिल का भी लिबास

क्या ऐब ढूँढता कोई उस जामा-ज़ेब में

भूका परिंदा शाख़ पे बैठा और उड़ गया

शायद कोई मिठास न थी कच्चे सेब में

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