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काम कुछ तो लेना था अपने दीदा-ए-तर से - असग़र मेहदी होश कविता - Darsaal

काम कुछ तो लेना था अपने दीदा-ए-तर से

काम कुछ तो लेना था अपने दीदा-ए-तर से

काट दीं कई रातें आँसुओं के ख़ंजर से

नींद है थकन सी है सिलवटें हैं यादें हैं

कितने लोग उठेंगे सुब्ह मेरे बिस्तर से

जान-बूझ कर हम ने बादबान खोले हैं

किस को अब पलटना है बे-कराँ समुंदर से

भीगना मुज़िर तो था फिर भी कैसी लज़्ज़त थी

जब घटाएँ उट्ठीं थीं मैं क़रीब था घर से

आज तो हवा भी है तेज़ बर्फ़-बारी भी

यूँ भी नींद क्या आती इक शिकस्ता चादर से

जब भी पाएँगे मौक़ा' फूल तोड़ ही लेंगे

बच्चे रुक नहीं सकते बाग़बान के डर से

ऐ नशात के ज़ीनो तुम को याद तो होगा

इक सलाम कह देना उस मदीना-अख़्तर से

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