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जो सज़ा चाहो मोहब्बत से दो यारो मुझ को - असग़र मेहदी होश कविता - Darsaal

जो सज़ा चाहो मोहब्बत से दो यारो मुझ को

जो सज़ा चाहो मोहब्बत से दो यारो मुझ को

लेकिन अख़्लाक़ के पत्थर से न मारो मुझ को

आबशारों की तरह मैं नहीं गिरने वाला

धूप की तरह पहाड़ों से उतारो मुझ को

मैं तो हर हाल में डूबूँगा मगर अख़्लाक़न

ये ज़रूरी है कि साहिल से पुकारो मुझ को

अज़्मत-ए-तिश्ना-लबी भूल न जाओ लोगो

फिर किसी दश्त से इक बार गुज़ारो मुझ को

तुम तो डूबे हुए ख़ुर्शीद के पर्वर्दा हो

तुम नहीं जानते ऐ चाँद सितारो मुझ को

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