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बचपन तमाम बूढ़े सवालों में कट गया - असग़र मेहदी होश कविता - Darsaal

बचपन तमाम बूढ़े सवालों में कट गया

बचपन तमाम बूढ़े सवालों में कट गया

स्कूल की किताबों से अब जी उचट गया

लिक्खे हुए थे सारे फ़रिश्तों के जिस पे नाम

शायद वही वरक़ किसी बच्चे से फट गया

ताज़ा हवा की आस में पर्दे उठा दिए

बस ये हुआ कि गर्द में सामान अट गया

कल कार्नस पे देख के चिड़ियों का खेलना

बे-वज्ह ज़ेहन उस के ख़यालों में बट गया

इक बच्चा उस खुली हुई खिड़की में झाँक कर

शर्मा के घर जो भागा तो माँ से लिपट गया

क्या कहता और चारागरों से वो बे-ज़बान

ज़ख़्मी परिंदा अपने परों में सिमट गया

सहरा दुहाई देता रहा अपनी प्यास की

बादल बरस के ख़ुश्क चटानों पे छट गया

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