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ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया - असग़र गोंडवी कविता - Darsaal

ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया

ज़ौक़-ए-सरमस्ती को महव-ए-रू-ए-जानाँ कर दिया

कुफ़्र को इस तरह चमकाया कि ईमाँ कर दिया

तू ने ये एजाज़ क्या ऐ सोज़-ए-पिन्हाँ कर दिया

इस तरह फूँका कि आख़िर जिस्म को जाँ कर दिया

जिस पे मेरी जुस्तुजू ने डाल रक्खे थे हिजाब

बे-ख़ुदी ने अब उसे महसूस ओ उर्यां कर दिया

कुछ न हम से हो सका इस इज़्तिराब-ए-शौक़ में

उन के दामन को मगर अपना गरेबाँ कर दिया

गो नहीं रहता कभी पर्दे में राज़-ए-आशिक़ी

तुम ने छुप कर और भी उस को नुमायाँ कर दिया

रख दिए दैर ओ हरम सर मारने के वास्ते

बंदगी को बे-नियाज़-ए-कुफ़्र-ओ-ईमाँ कर दिया

आरिज़-ए-नाज़ुक पे उन के रंग सा कुछ आ गया

इन गुलों को छेड़ कर हम ने गुलिस्ताँ कर दिया

इन बुतों की सूरत-ए-ज़ेबा को 'असग़र' क्या कहूँ

पर ख़ुदा ने वाए नाकामी मुसलमाँ कर दिया

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