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मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं - असग़र गोंडवी कविता - Darsaal

मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं

मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं

जिसे सब दर्द कहते हैं उसे हम दिल समझते हैं

इसी से दिल इसी से ज़िंदगी-ए-दिल समझते हैं

मगर हासिल से बढ़ कर सई-ए-बे-हासिल समझते हैं

कभी सुनते थे हम ये ज़िंदगी है वहम ओ बे-मअ'नी

मगर अब मौत को भी ख़तरा-ए-बातिल समझते हैं

बहुत समझे हुए है शेख़ राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िल को

यहाँ मंज़िल को भी हम जादा-ए-मंज़िल समझते हैं

उभरना हो जहाँ जी चाहता है डूब मरने को

जहाँ उठती हों मौजें हम वहाँ साहिल समझते हैं

कोई सरगश्ता-ए-राह-ए-तरीक़त इस को क्या जाने

यहाँ उफ़्तादगी को हासिल-ए-मंज़िल समझते हैं

तमाशा है नियाज़ ओ नाज़ की बाहम कशाकश का

मैं उन का दिल समझता हूँ वो मेरा दिल समझते हैं

अबस है दावा-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत ख़ाम-कारों को

ये ग़म देते हैं जिस को जौहर-ए-क़ाबिल समझते हैं

ग़म-ए-ला-इंतिहा सई-ए-मुसलसल शौक़-ए-बे-पायाँ

मक़ाम अपना समझते हैं न हम मंज़िल समझते हैं

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