मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
मता-ए-ज़ीस्त क्या हम ज़ीस्त का हासिल समझते हैं
जिसे सब दर्द कहते हैं उसे हम दिल समझते हैं
इसी से दिल इसी से ज़िंदगी-ए-दिल समझते हैं
मगर हासिल से बढ़ कर सई-ए-बे-हासिल समझते हैं
कभी सुनते थे हम ये ज़िंदगी है वहम ओ बे-मअ'नी
मगर अब मौत को भी ख़तरा-ए-बातिल समझते हैं
बहुत समझे हुए है शेख़ राह-ओ-रस्म-ए-मंज़िल को
यहाँ मंज़िल को भी हम जादा-ए-मंज़िल समझते हैं
उभरना हो जहाँ जी चाहता है डूब मरने को
जहाँ उठती हों मौजें हम वहाँ साहिल समझते हैं
कोई सरगश्ता-ए-राह-ए-तरीक़त इस को क्या जाने
यहाँ उफ़्तादगी को हासिल-ए-मंज़िल समझते हैं
तमाशा है नियाज़ ओ नाज़ की बाहम कशाकश का
मैं उन का दिल समझता हूँ वो मेरा दिल समझते हैं
अबस है दावा-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत ख़ाम-कारों को
ये ग़म देते हैं जिस को जौहर-ए-क़ाबिल समझते हैं
ग़म-ए-ला-इंतिहा सई-ए-मुसलसल शौक़-ए-बे-पायाँ
मक़ाम अपना समझते हैं न हम मंज़िल समझते हैं
(1953) Peoples Rate This