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मस्ती में फ़रोग़-ए-रुख़-ए-जानाँ नहीं देखा - असग़र गोंडवी कविता - Darsaal

मस्ती में फ़रोग़-ए-रुख़-ए-जानाँ नहीं देखा

मस्ती में फ़रोग़-ए-रुख़-ए-जानाँ नहीं देखा

सुनते हैं बहार आई गुलिस्ताँ नहीं देखा

ज़ाहिद ने मिरा हासिल-ए-ईमाँ नहीं देखा

रुख़ पर तिरी ज़ुल्फ़ों को परेशाँ नहीं देखा

आए थे सभी तरह के जल्वे मिरे आगे

मैं ने मगर ऐ दीदा-ए-हैराँ नहीं देखा

इस तरह ज़माना कभी होता न पुर-आशोब

फ़ित्नों ने तिरा गोशा-ए-दामाँ नहीं देखा

हर हाल में बस पेश-ए-नज़र है वही सूरत

मैं ने कभी रू-ए-शब-ए-हिज्राँ नहीं देखा

कुछ दावा-ए-तमकीं में है माज़ूर भी ज़ाहिद

मस्ती में तुझे चाक-गरेबाँ नहीं देखा

रूदाद-ए-चमन सुनता हूँ इस तरह क़फ़स में

जैसे कभी आँखों से गुलिस्ताँ नहीं देखा

मुझ ख़स्ता ओ महजूर की आँखें हैं तरसती

कब से तुझे ऐ सर्व-ख़िरामाँ नहीं देखा

क्या क्या हुआ हंगाम-ए-जुनून ये नहीं मालूम

कुछ होश जो आया तो गरेबाँ नहीं देखा

शाइस्ता-ए-सोहबत कोई उन में नहीं 'असग़र'

काफ़िर नहीं देखे कि मुसलमाँ नहीं देखा

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