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मय-ए-बे-रंग का सौ रंग से रुस्वा होना - असग़र गोंडवी कविता - Darsaal

मय-ए-बे-रंग का सौ रंग से रुस्वा होना

मय-ए-बे-रंग का सौ रंग से रुस्वा होना

कभी मय-कश कभी साक़ी कभी मीना होना

अज़ अज़ल ता-ब अबद महव-ए-तमाशा होना

मैं वो हूँ जिसको न मरना है न पैदा होना

सारे आलम में है बेताबी ओ शोरिश बरपा

हाए उस शोख़ का हम-शक्ल-ए-तमन्ना होना

फ़स्ल-ए-गुल क्या है ये मेराज है आब ओ गिल की

मेरी रग रग को मुबारक रग-ए-सौदा होना

कह के कुछ लाला ओ गुल रख लिया पर्दा मैं ने

मुझसे देखा न गया हुस्न का रुस्वा होना

जल्वा-ए-हुस्न को है चश्म-ए-तहय्युर की तलब

किस की क़िस्मत में है महरूम-ए-तमाशा होना

दहर ही से वो नुमायाँ भी है पिन्हाँ भी है

जैसे सहबा के लिए पर्दा-ए-मीना होना

तेरी शोख़ी तेरी नैरंग अदाई के निसार

इक नई जान है तज्दीद-ए-तमन्ना होना

हुस्न के साथ है बेगाना-निगाही का मज़ा

क़हर है क़हर मगर अर्ज़-ए-तमन्ना होना

इस से बढ़ कर कोई बे-राह-रवी क्या होगी

गाम-ए-पुर-शौक़ का मंज़िल से शनासा होना

माइल-ए-शेर-ओ-ग़ज़ल फिर है तबीअत 'असग़र'

अभी कुछ और मुक़द्दर में है रुस्वा होना

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