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ख़ुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से - असग़र गोंडवी कविता - Darsaal

ख़ुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से

ख़ुदा जाने कहाँ है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से

कि उस को ढूँढते हैं काबा ओ बुत-ख़ाना बरसों से

तड़पना है न जलना है न जल कर ख़ाक होना है

ये क्यूँ सोई हुई है फ़ितरत-ए-परवाना बरसों से

कोई ऐसा नहीं या रब कि जो इस दर्द को समझे

नहीं मालूम क्यूँ ख़ामोश है दीवाना बरसों से

कभी सोज़-ए-तजल्ली से उसे निस्बत न थी गोया

पड़ी है इस तरह ख़ाकिस्तर-ए-परवाना बरसों से

तिरे क़ुर्बान साक़ी अब वो मौज-ए-ज़िंदगी कैसी

नहीं देखी अदा-ए-लग़्ज़िश-ए-मस्ताना बरसों से

मिरी रिंदी अजब रिंदी मिरी मस्ती अजब मस्ती

कि सब टूटे पड़े हैं शीशा ओ पैमाना बरसों से

हसीनों पर न रंग आया न फूलों में बहार आई

नहीं आया जो लब पर नग़्मा-ए-मस्ताना बरसों से

खुली आँखों से हूँ हुस्न-ए-हक़ीक़त देखने वाला

हुई लेकिन न तौफ़ीक़-ए-दर-ए-बुत-ख़ाना बरसों से

लिबास-ए-ज़ोहद पर फिर काश नज़्र-ए-आतिश-ए-सहबा

कहाँ खोई हुई है जुरअत-ए-रिंदाना बरसों से

जिसे लेना हो आ कर उस से अब दर्स-ए-जुनूँ ले ले

सुना है होश में है 'असग़र'-ए-दीवाना बरसों से

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