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जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है - असग़र गोंडवी कविता - Darsaal

जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है

जो नक़्श है हस्ती का धोका नज़र आता है

पर्दे पे मुसव्विर ही तन्हा नज़र आता है

नैरंग-ए-तमाशा वो जल्वा नज़र आता है

आँखों से अगर देखो पर्दा नज़र आता है

लौ शम-ए-हक़ीक़त की अपनी ही जगह पर है

फ़ानूस की गर्दिश से क्या क्या नज़र आता है

ऐ पर्दा-नशीं ज़िद है क्या चश्म-ए-तमन्ना को

तू दफ़्तर-ए-गुल में भी रुस्वा नज़र आता है

नज़्ज़ारा भी अब गुम है बे-ख़ुद है तमाशाई

अब कौन कहे इस को जल्वा नज़र आता है

जो कुछ थी यहाँ रौनक़ सब बाद-ए-चमन से थी

अब कुंज-ए-क़फ़स मुझ को सूना नज़र आता है

एहसास में पैदा है फिर रंग-ए-गुलिस्तानी

फिर दाग़ कोई दिल में ताज़ा नज़र आता है

थी फ़र्द-ए-अमल 'असग़र' क्या दस्त-ए-मशिय्यत में

इक एक वरक़ इस का सादा नज़र आता है

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