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असरार-ए-इश्क़ है दिल-ए-मुज़्तर लिए हुए - असग़र गोंडवी कविता - Darsaal

असरार-ए-इश्क़ है दिल-ए-मुज़्तर लिए हुए

असरार-ए-इश्क़ है दिल-ए-मुज़्तर लिए हुए

क़तरा है बे-क़रार समुंदर लिए हुए

आशोब-ए-दहर ओ फ़ित्ना-ए-महशर लिए हुए

पहलू में या'नी हो दिल-ए-मुज़्तर लिए हुए

मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह के क़ुर्बान जाइए

आई है बू-ए-ज़ुल्फ़-ए-मोअम्बर लिए हुए

क्या मस्तियाँ चमन में हैं जोश-ए-बहार से

हर शाख़-ए-गुल है हाथ में साग़र लिए हुए

क़ातिल निगाह-ए-यास की ज़द से न बच सका

ख़ंजर थे हम भी इक तह-ए-ख़ंजर लिए हुए

ख़ीरा किए है चश्म-ए-हक़ीक़त-शनास भी

हर ज़र्रा एक मेहर-ए-मुनव्वर लिए हुए

पहली नज़र भी आप की उफ़ किस बला की थी

हम आज तक वो चोट हैं दिल पर लिए हुए

तस्वीर है खिंची हुई नाज़-ओ-नियाज़ की

मैं सर झुकाए और वो ख़ंजर लिए हुए

सहबा-ए-तुंद-ओ-तेज़ को साक़ी सँभालना

उछले कहीं न शीशा-ओ-साग़र लिए हुए

मैं क्या कहूँ कहाँ है मोहब्बत कहाँ नहीं

रग रग में दौड़ी फिरती है नश्तर लिए हुए

नाम उन का आ गया कहीं हंगाम-ए-बाज़-पुर्स

हम थे कि उड़ गए सफ़-ए-महशर लिए हुए

'असग़र' हरीम-ए-इश्क़ में हस्ती ही जुर्म है

रखना कभी न पाँव यहाँ सर लिए हुए

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