सज्दे के दाग़ से न हुई आश्ना जबीं
बेगाना-वार गुज़रे हर इक आस्ताँ से हम
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लुत्फ़ गुनाह में मिला और न मज़ा सवाब में
आह क्या क्या आरज़ूएँ नज़्र-ए-हिरमाँ हो गईं
सारी दुनिया से बे-नियाज़ी है
तेरे शबाब ने किया मुझ को जुनूँ से आश्ना
तुम्हारी याद में दुनिया को हूँ भुलाए हुए
जिस हुस्न की है चश्म-ए-तमन्ना को जुस्तुजू
ज़ुल्मत-ए-दश्त-ए-अदम में भी अगर जाऊँगा
रुमूज़-ए-मोहब्बत
तुम्हारी फ़ुर्क़त में मेरी आँखों से ख़ूँ के आँसू टपक रहे हैं
जहाँ पे छाया सहाब-ए-मस्ती बरस रही है शराब-ए-मस्ती
ये हुस्न-ए-दिल-फ़रेब ये आलम शबाब का